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बुधवार, 19 सितंबर 2018

Kabir ke dohe

कबीरदास- कबीरदास भक्तिकाल के निर्गुण काव्यधारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि हैं I कबीरदास जी का जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारतीय समाज में धर्म पाखंड, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता आदि अपने चरम पर थे I धर्म के ठेकेदार अपनी फायदे की रोटियां सेंकने में लगे थे I हिन्दू मुस्लिम आपस में धर्म के नाम पर लड़ रहे थे I ऐसे समय में कबीरदास जी ने दोनों धर्मों के लोगों को फटकार लगाई I इनके उपदेश आज भी सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले हैं I इस प्रकार संत कबीर महान विचारक, श्रेष्ठ समाज सुधारक, परम योगी और ब्रम्ह के सच्चे साधक थे I 
kabir ke dohe

जन्म सन- 1398 ई०
देहांत- 1518 ई०
रचनाएं- साखी, सबद, रमैनी I
कबीर के दोहे-
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप I
जाके हिरदै सांच है, ताके हिरदै आप I1I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं की इस जगत में सत्य के मार्ग पर चलने से बड़ी कोई तपस्या नहीं है और ना ही झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप है क्योंकि जिसके ह्रदय में सत्य का निवास होता है उसके ह्रदय में साक्षात् परमेश्वर का वास होता है ।

बोली एक अमोल है, जो कोई बोलै जानि I
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि I2I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे वाणी का महत्व पता है I इसलिए वह वाणी का प्रयोग सोच समझकर करता है क्योंकि वाणी से  निकले हुए शब्द वापस नहीं आते I 

अति का भला न बोलना अति की भली न चुप I
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप I3I
अर्थ: संत कबीरदास जी कहते हैं कि अति हर चीज़ की हानिकारक होती है. ज्यादा बोलना अथवा ज्यादा चुप रहना व्यक्ति के लिए हानिकारक सिद्ध हो जाता है, जिस प्रकार ज्यादा बरसात होना अथवा ज्यादा तेज़ धूप होना दोनों ही इस सृष्टि के संतुलन के लिए नुक्सानदायक है अर्थात अति सर्वत्र वर्जते 

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब I  
पल में परलै होएगी, बहुरि करैगो कब I4I
अर्थ: संत कबीरदास जी कहते हैं कि जो कार्य कल करना है उसे आज ही करलें क्योंकि कल कौन सी मुशीबत आ जाये किसी को कुछ नहीं पता इसलिए कार्य को कभी भी भविष्य के लिए नहीं छोड़ना चाहिए ।

साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय I
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए I5I
अर्थ: संत कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु इतनी धन, संपत्ति दीजिये जिससे कुटुम्ब का भरण-पोषण किया जा सके और यदि कोई अतिथि आ जाये तो उसका अतिथि सत्कार हम अच्छे से कर सके ।

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय I
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय I6I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को सदा चापलूसों से दूरी और अपनी निंदा करने वालों को अपने पास ही रखना चाहिए, क्योंकि निंदा सुन कर ही हमारे अन्दर स्वयं को निर्मल करने का विचार आ सकता है I यह निर्मलता बिना पानी और साबुन के आती है I यहाँ ह्रदय की निर्मलता की बात कही गयी है I

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान I
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान I7I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि संत या ज्ञानीपुरुष की जाति नहीं देखनी चाहिए, अपितु उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए अर्थात जिस प्रकार तलवार का मोल होता है उसकी म्यान का नही I 

माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर I
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर I8I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि माला जपने से कोई लाभ नही है जब तक मन की कुटिलता, मन की पवित्रता पर ध्यान न दिया जाये अर्थात बाहरी आडम्बर छोड़कर मन की पवित्रता पर ध्यान दें I

सोना, सज्जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार I
दुर्जन, कुंम्भ, कुम्हार के, एकै धका दरार I9I
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं सोना, सज्जन और साधुजन बार-बार टूटकर जुड़ जाते हैं अर्थात सज्जन बार-बार असफल होने पर भी हार नहीं मानते हैं और अपना प्रयास जारी रखते हैं I वहीँ दूसरी ओर दुर्जन, कुम्हार के बनाये हुए घड़े तुरंत फूट जाते हैं I अर्थात जो दुर्जन पुरुष होते हैं एक बार असफल होने पर हार मान लेते हैं I
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