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बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

इस बच्चे का Hanuman Chalisa सुनकर दंग रह जायेंगे

इस बच्चे का Hanuman Chalisa सुनकर दंग रह जायेंगे-
hanuman chalisa by jayas kumar
हनुमान चालीसा की रचना- आप सभी जानते होंगे की हनुमान चालीसा की रचना गोस्वामी तुलसीदासजी ने की थी I हनुमान चालीसा की रचना के कई कारण हमको बताये जाते हैं,लेकिन कारण कुछ भी हों यह निश्चित रूप से हनुमान जी की भक्ति के लिए पर्याप्त है I इसका नित्य पाठ गायन करने से महाबली हनुमान जी प्रसन्न होते हैं, वे सभी प्रकार की कठिनाइयों का निवारण करते हैं,शारीरिक परेशानी को दूर करते हैं, भय, बाधा को हरते हैं तथा साथ ही बल, बुद्धि, विद्या प्रदान करते हैं I
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हनुमान चालीसा की रचना के पीछे के कारण- कहा जाता है कि एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी के शरीर में अनेक फोड़े,फुंसी हो गए I उनके शरीर में अथाह पीड़ा होने लगी I वे अत्यधिक पीड़ा से कराहने लगे, तब उन्होंने हनुमान चालीसा की रचना कर हनुमान जी की आराधना की I धीरे - धीरे उनकी पीड़ा कम होने लगी और 40 दिन में ही वह पूरी तरह से स्वस्थ हो गए I
दूसरा कारण- कहा जाता है की गोस्वामी तुलसीदास जी की राम भक्ति पूरे भारतवर्ष में फ़ैल गयी I इसकी खबर अकबर को भी हो गयी I अकबर ने तुलसीदास जी को बुलवाया लेकिन वह नहीं गए, तब अकबर ने उन्हें बंदी बनवा लिया I वे वहां अकबर के नवरत्न अब्दुल रहींम खानखाना तथा टोडरमल से मिले I अकबर के नवरत्नों ने कहा तुम अकबर की प्रशंसा के गीत गाओ और मुक्त हो जाओ I तुलसीदास जी ने जवाब दिया मैं अपने राम के अतिरिक्त किसी के गीत नहीं गाता I अंततः अकबर ने उन्हें कारागार में डाल दिया, उन्होंने वहां हनुमान चालीसा की रचना कर हनुमान जी की आराधना की I इससे वहां के बन्दर सैनिकों पर आक्रमण करने लगे I आये दिन बन्दर झुण्ड में आते और सैनिकों को लहुलुहान करके चले जाते और अकबर को भक्ति की बात समझने में देर न लगी I अंत में अकबर ने तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त कर दिया I जय श्री राम !
hanuman chalisa Source- http://hanumanchalisa.info/
दोहा॥
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥
॥चौपाई॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥१॥
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥२॥
महाबीर बिक्रम बजरङ्गी ।
कुमति निवार सुमति के सङ्गी ॥३॥
कञ्चन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुञ्चित केसा ॥४॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ साजै ॥५॥
सङ्कर सुवन केसरीनन्दन ।
तेज प्रताप महा जग बन्दन ॥६॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥७॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लङ्क जरावा ॥९॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥१०॥
लाय सञ्जीवन लखन जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥११॥
रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥
सहस बदन तुह्मारो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥१३॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना ।
राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥
तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लङ्केस्वर भए सब जग जाना ॥१७॥
जुग सहस्र जोजन पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥
दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुह्मरे तेते ॥२०॥
राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥
सब सुख लहै तुह्मारी सरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥
आपन तेज सह्मारो आपै ।
तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥
नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥२५॥
सङ्कट तें हनुमान छुड़ावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥
सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥
और मनोरथ जो कोई लावै ।
सोई अमित जीवन फल पावै ॥२८॥
चारों जुग परताप तुह्मारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥२९॥
साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम दुलारे ॥३०॥
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ॥३१॥
राम रसायन तुह्मरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥
तुह्मरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥३३॥
अन्त काल रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥३४॥
और देवता चित्त न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥३५॥
सङ्कट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥
जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥३७॥
जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बन्दि महा सुख होई ॥३८॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥३९॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥
॥दोहा॥
पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥ 
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